Thursday, April 11, 2013

बाबूजी, चायपत्ती ख़त्म है

8:30 बज गए हैं | अभी तक सुबह की चाय नहीं मिली है | लगता है बहू को याद नहीं रहा होगा | उस बेचारी को भी तो सुबह से कितना काम रहता है | कभी बाई के नखरे, कभी दूधवाले की तुनाकमिजाज़ी, बच्चों को स्कूल छोड़ के आना, प्रदीप को ऑफिस के लिए तैयार करवाना | गोया अभिमन्यु कुरुक्षेत्र में महारथियों से अकेले ही भीड़ रहा हो | पर चाय बनाना भी तो उतना ही महत्त्वपूर्ण कार्य है | नित्य दिनचर्या का एक अभिन्न हिस्सा है | बिना चाय के तो सूरज भी नहीं उगता है, हम तो आम इंसान हैं | कहने को हमारे रगों में लहू बहता है, पर उसे दौड़ने की उर्जा तो चाय से ही मिलती है | ईश्वर ने दुनिया में कितनी बुराईयाँ भरी है, छल, कपट, इर्ष्या, द्वेष , पर फिर उन्होंने चाय का सृजन कर दिया और उनकी सारी गलतियाँ माफ़ हो गयी |

खैर चाय की महिमा पर तो कसीदे लिखे जाते रहेंगे, अगर अगले 5 मिनट में चाय की खुशबू नाक तक नहीं पहुंची तो गृहमंत्री के सामने चाय बनाने का आधिकारिक प्रस्ताव रखा जाएगा |

जब घडी के लम्बे कांटे ने छोटे को अपने आगोश में ले लिया और किचेन से जरा भी आहट नहीं हुई, तो मुझसे रहा नहीं गया| गला खँखारते हुए मैंने आवाज़ दी - "बहू जरा चाय लेते आना"|

"बाबूजी, चायपत्ती ख़त्म है, आपको लेकर आना होगा"!

वाक्य के शुरुआत ने जो मेरे बदन में चिंगारी उत्पन्न की थी, वो वाक्य के ख़त्म होते होते उग्र ज्वाला  का रूप धारण कर चुकी थी | एक तो चाय देर से मिलने की खीझ और ऊपर से बहू का निर्देशात्मक और अनादर भरा बर्ताव | मैं मन ही मन बुदबुदाया - " नहीं लाऊंगा चायपत्ती, नहीं पीनी है चाय| ना ही चाय समुद्र मंथन का हलाहल है, और ना ही मैं नीलकंठ | अभी नहीं पीऊँ तो सृष्टि का अंत नहीं हो जाएगा |

चाय न मिलने की जो निराशा थी, उसे बहू के शब्दों ने आक्रोश में तब्दील कर दिया था | चायपत्ती ख़त्म होना एक बात है, अपने वृद्ध ससुर को आदेश देना तो अशिष्टता है | और फिर चायपत्ती कोई कपूर की गोली तो है नहीं, की हवा में निकालो और गायब हो जाये | जब चायपत्ती ख़त्म होने के कगार पर थी, तो महारानी सास बहू के धारावाहिक देख कर आँसूं बहा रही थी | और आज जब बिलकुल ही ख़त्म हो गयी तो वेम्पायराना अंदाज़ में बैकग्राउंड संगीत के साथ अपने ससुर को फ़रमान जारी कर दिया|

इस घर में अगर एक 65 साल के अधेड़ व्यक्ति को बिना शर्त चाय पिलाने का इल्म नहीं है तो क्या, पड़ोसी किस दिन काम आयेंगे | चलकर त्रिपाठी जी के घर बैठक लगायी जाए | पर सुबह के टाइम त्रिपाठी जी के घर पहुँच जाओ तो बड़ी ही अवांछित सी अनुभूति होती है | चाय तो मिल जाती है, पर त्रिपाठी जी का ध्यान नहीं मिल पता है | पूरे वक्त उनकी नज़रें अखबार में ऐसी गड़ी रहती है, मानो तूतेन खामेन का ख़जाना उधर ही छुपा है | अरे महाराज, मैं आपकी विवाहेतर प्रेमिका तो हूँ नहीं, जो आपका पूरा समय मांग रहा हूँ | बस इतनी ख्वाहिश रहती है की जितनी देर आपके सामने बैठू, 2-4 बातें कर ली जाए, थोड़े ठहाके लगा लिए जाए | फिर हम अपने रास्ते, आप अपने रास्ते | पर ऐसा प्रतीत होता है, त्रिपाठी जी कपड़ा दूकान में लगे इस सन्देश को निजी जीवन में बड़ी गंभीरता के साथ लागू करते है - ' फैशन के इस दौड़ में गारंटी की इच्छा ना करे, व्यस्तता के इस दौड़ में आवभगत की इच्छा ना करे!' इससे बेतुकी बात तो मैंने आज तक सुनी ही नहीं | मतलब कैटरीना के दौड़ में माधुरी की इच्छा ना करे ! ऐसा कही हो सकता है | महोदय Simon Weil ने फ़रमाया है - "Attention is the rarest and purest form of generosity". हमे तो आपकी उपस्थिति, आपका ध्यान और साथ में गरमा गरम चाय भी चाहिए | ये सब सोचते हुए मैंने त्रिपाठी जी के घर जाने का ख्याल अपने दिमाग से निकाल दिया |

इंसान चाय तबियत खुश करने के लिए पीता है | पर इस खुशनुमा एहसास के लिए उसे बहू की बेरुखी और त्रिपाठी जी की तटस्थ्ता झेलनी पड़े, तो ये ख़ुशी किस काम की ? इससे अच्छा है की नींद की 2 गोलीयाँ खा कर बिस्तर पर लेट जाओ | विचारों के इसी उधेड़बुन में घड़ी ने कब 9 बजा दिए , पता ही नहीं चला |

इससे पहले बहू और त्रिपाठी जी को कोसने के श्रृंखला में एक और अध्याय जुड़ता, बहू चाय के प्याले के साथ सामने खड़ी थी | मैं अपना वाक्-बाण तैयार कर ही रहा था की वो खुद बोल पड़ी -
"कल रात Bournvita खाने के चक्कर में अहान ने चायपत्ती की पूरी शीशी ही उढ़ेल दी | और आज सुबह आकृति को स्कूल छोड़ते समय मैं सीढ़ियों में उलझ कर गिर पड़ी थी | पैर में मोच आ गयी थी, इसलिए चलने में थोड़ी परेशानी हो रही थी | फिर मुझे ध्यान आया की पिंटू किराने वाला आजकल होम डिलीवरी करने लगा है | तो उसी से चायपत्ती माँगा ली |"

यह कह कर बहू लड़खड़ाती हुई अपने कमरे की ओर चल दी | जमीन पर पड़ते उसके हर कदम मेरे मन में ग्लानि और गर्व का बेमेल भंवर पैदा कर रहे थे | ग्लानि इस बात की मैंने बिना जाने समझे बहू को इतना कोसा, गर्व इसलिए की ऐसी संवेदनशील और ध्यान रखने वाली बहू हर किसी को नहीं मिलती|

चाय की पहली चुस्की लेते साथ एहसास हुआ की हमारी सोच हालातों के चारदीवारी में इस कदर गुलाम हो जाती है की दीवार के पार झांककर सच्चाई जानने की कोशिश भी नहीं करती है| मानसिक उत्तेजना के क्षण में हमारी बुद्धि और विवेक, दोनों ही आवेश में बह जाते है और हम एक सुलझा हुआ निर्णय लेने में असमर्थ हो जाते है| उस समय हमारी अच्छा-बुरा पहचानने की शक्ति short-term return को ज्यादा तवज्जो देती है जो की हमारे long-term prospects को बाधित करता है| चाय की दूसरी चुस्की के साथ मुझे ऐसा भी लगा की शायद त्रिपाठी जी के घर सुबह सुबह पहुँचना मेरी ही गलती है| हर इंसान का अपना व्यक्तिगत स्पेस होता है, जिसमे वो किसी की दखलअंदाजी पसंद नहीं करता है| बजाय उनके व्यवहार पर कुढने के, मैं ही उनके घर उचित समय पर दर्शन दिया करूँगा| पिछले आधे घंटे के बेतुके विचार-मंथन और हालातों के क्षणभंगुर प्रभाव को चाय की अगली चुस्की के साथ मैंने हमेशा के लिए अपने अन्दर समाहित कर लिया|